बुधवार, 10 नवंबर 2010

हर चिट्ठा कुछ कहता है

हर चिट्ठा कुछ कहता है

कभी खामोश लफ्जों में
दर्द को खुद में समेटे हुए
वक्त के दिये जख्मों को उकेरता है
बनकर शब्दों की माला
हर चिट्ठा कुछ कहता है





बीते लम्हों को संजोकर
सुनहरे पलों की याद लिये
अपनी कहानी कहता है
बनकर शब्दों की माला
हर चिट्ठा कुछ कहता है





कभी शून्य आवाज में
कभी चीर आवाज में
मन को झकझोर देता है
बनकर शब्दों की माला
हर चिट्ठा कुछ कहता है





कभी मासूम आवाज में
तुतलाती आवाज में
एक बचपन कुछ कहता है
कभी गंभीर आवाज में
बनकर एक नव चिराग
जिंदगी का सच बताता है
बनकर शब्दों की माला
हर चिट्ठा कुछ कहता है

Peace


एक पहेली बनकर
पहेली बनी जिंदगी को
खुदब खुद सुलझाता है
सुझबूझ की बाते बताकर
बनकर शब्दों की माला
हर चिट्ठा कुछ कहता है



उम्र की दहलीज पे
बनकर बचपन की आवाज
खुद को एक मासुम बनकर देखता है
इस जिंदगी के मेले में
बनकर शब्दों की माला
हर चिट्ठा कुछ कहता है



अंधेरी राह पर
ठोकरों को भी सहता है
पर दुसरों के लिये नवदीप बनकर
वह पथ पर चलता है
बनकर शब्दों की माला
हर चिट्ठा कुछ कहता है
blue book


तोड़ कर बाधाएँ सीमाओं की
सागर की गहराई को भी नापता है
जोड़कर परायों को आपस में
यह अपना नया परिवार बनाता है
बनकर शब्दों की माला
          हर चिट्ठा कुछ कहता है............  





                                                                                                                                                                                         

14 टिप्‍पणियां:

  1. भई वाह! आशीष जी....क्या खूब अन्दाज अपनाया आपने....
    बहुत खूब! सच में हर चिट्ठा कुछ कहता है....
    आभार्!

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  2. सुन्दर रचना. वर्तनी की कुछ त्रुटियाँ दिख रही हैं.
    बिते = बीते
    शुन्य = शून्य
    मासुम = मासूम
    सुझ भुज = सूझ भूज

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  3. हमने भी गलती कर दी. सूझ भूज न होकर सूझ बूझ होना चाहिए

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  4. बहुत सुन्दर ...सच है हर चिट्ठा कुछ कहता है ...

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  5. बहुत सही ...हर चिट्ठे में भाव तो होते हैं ...

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  6. आशीष भाई, आपका यह अंदाज सचमुच दिल को छू गया। बधाई लीजिए जी

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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