सोमवार, 14 जून 2010

एक मासूम सफ़र भाग -२



इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर पहुँच कर वहॉ की रौनकता देखकर ना जाने क्यों मेरा मन थोड़ा सा खुश हो जाता था, शायद प्लेटफ़ॉर्म पर रेलगाड़ीयों को देखने के लिये क्योकि उन्हे देखना बहोत अच्छा लगता था या फ़िर कुछ अच्छा खाने को मिलेगा यह सोचकर. आखिर बचपना था कुछ अच्छा खाने को मिले तो भला मन क्यो ना खुश हो और वह भी तब जब काफ़ी रो लिया हो. प्लेटफ़ार्म पर पहुँच मेरे अंकल तुरंत कुछ खाने का प्रबंध करते थे, कोल्डड्रींक की बाटल मिल जाने पर मेरी खुशी थोड़ी और बढ जाती थी, बड़े ही इस्टाईल से पीता था जैसे आजकल के हीरो विज्ञापनो मे पीते है. स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर बस कुछ ऐसी आवाजे सुनाई देती- "यात्रीगण कृपया ध्यान दे छपरा से चलकर दुर्ग को जाने वाली गाड़ी संख्या ५१५९ सारनाथ एक्सप्रेस अपने निर्धारीत समय पर प्लेटफ़ॉर्म नम्बर ५ पर आ रही है". मेरे दादाजी मेरी तरफ़ देखते और कहते राजा तुम्हारी ट्रेन आ रही है. मन मे फ़िर ना जाने क्यो गॉव की याद छा जाती थी. जैसे ही रेलगाड़ी व्हीस्टल देते हुये प्लेटफ़ॉर्म पर प्रवेश करती, उसकी आगे की हेड लाइट दिखाई देती, उसकी धड़-धड़ की आवज सुनाई देती तो अभी थोड़ी देर पहले ट्रेनो को देखने पर जो खुशी मिल रही थी वह गायब हो गयी. अब तो ऐसा लग रहा थे जैसे कोई मुझे मेरे गॉव से जुदा करने आ रहा है. इन्जन जब मेरे सामने से गुजरा तो मै डर जाता, मेरी आन्खो मे सिर्फ़ गांव की यादे सामने आ रही थी. मेरी अंटी मेरा हाथ पकड़ लेती और मै उनके साथ अपने कोच की ओर बढ़ने लगता. काफ़ी भीड़ रहती थी, लोगो मे कहा सुनी हो जाती थी, हमारे सामने वाले बर्थ पर एक काफ़ी बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हुए थे तभी एक सज्जन वहां आये जो काफ़ी गुस्से मे थे, उन्होने हमारे सामने बैठे बुजुर्ग व्यक्ति से कहा कि ये बर्थ उनकी है, वो वहां से उठ जाये. इस पर बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा कि मै अगले स्टॉप पर उठ जाउन्गा और कुछ दिनो बाद तो दुनिया से ही उठ जाउन्गा. इस बात को सुनकर सज्जन व्यक्ति चुप हो गये. उनकी बाते मुझे उस समय समझ नही आयी थी , पर अब जब मै थोड़ा समझदार हो गया हुं तो वो बाते मुझे समझ मे आ गयी है, यही सोचता हूँ कि व्यक्ति बर्थ के लिये क्यो लड़ता है, ये आज तुम्हारी है कल और किसी की हो जायेगी. भगवान श्री कृष्ण द्वारा गीता मे कही गयी बाते यहा भी सिद्ध होती है. 
                                     गाड़ी व्हीस्टल देती और चुपके से प्लेट्फ़ॉर्म को छोड़ने लगती तब मुझे लगता कि अब तो अपना देश छुट गया, मै हमेशा खिड़की के पास ही बैठता था, धीरे-धीरे गाड़ी अपनी रफ़्तार पकड़ लेती इलाहाबाद का दृश्य दिखाई देने लगता और थोड़ी देर मे यमुना नदी आ जाती, यमुना पुल को पार कर गाड़ी नैनी स्टेशन पर आ कर रुकती. इसके बाद गाड़ी अपनी पूरी रफ़्तार के साथ आगे बढ़ने लगती. रायपुर से घर आते वक्त चेहरा घर पहुँचने की खुशी मे खिला रहता था मै दादाजी और अंटी से ढेरो प्रश्न पुछता था कि यमुना नदी कब आयेगी, घर हम कितने बजे तक पहुँच जायेंगे, बब्बा ये ट्रेन धीमे क्यो चल रही है, इस ट्रेन को कौन बनाता है आदि. पर आज यह बड़-बड़ बोलने वाली मेरी जबान पुरी तरह बन्द थी. आज इस जबान से एक शब्द बोलना भारी पड़ रहा था. मेरी निगाहें खिड़की से बाहर की ओर देख रही थी , किसी दूर के पेड़ को देखकर लगता जैसे वो मेरे घर के सामने वाला पेड़ है. मेरी निगाहें उन्हे ढुंढने की कोशीश करती जो मेरे गांव का हो पर यहा तो सब अन्जान लोग ही दिख रहे थे. मेरी रोनी सी सुरत देखकर मेरे बब्बा(दादाजी) जी मुझसे पुछते कि क्या हुआ राजा मम्मी की याद आ रही है क्या ? इतना सुनना था कि मै फ़फ़क-फ़फ़क के रो पड़ता तब मेरी आंटी मुझे चुप कराती और कहती कि राजा जब दीपावली पर बब्बा आयेन्गे तब तुम भी उनके साथ आ जाना . मेरे इस दुखी मन को थोड़ी राहत मिल जाती पर हचकोले बन्द ही नही होते थे. धीरे-धीरे रात होने लगती बहर बल्बो की रोशनी दिखाई देने लगती थी पर आज मेरी ये निगाहें गॉव के लालटेन की रोशनी को देखना चाहती थी. गॉव मे बिजली आ जाने पर हम सब बहोत खुश हो जाते थे. पर आज रास्ते और ट्रेन मे लगी ये बल्बे मुझे अन्जानी सी लग रही थी. आज तो मुझे लालटेन की रोशनी चाहिये थी. वक्त खाना खाने का होता तो गॉव से लाई हुइ पुड़ी सब्जी को देख कर मन खुश हो जाता क्योकि इसे मेरी दादी और मम्मी ने बनाया था मैं इन्हे बड़े ही चाव से खा लेता और एक त्रिप्ती का अनुभव होता था, उस समय यदि कोई मेरे सामने मिठाई क डिब्बा भी रख देता तो शायद मै उसकी तरफ़ देखना भी पसन्द ना करता. खाना खाने के बाद मेरे अंकल मुझे उपर की बर्थ पर भेज देते थे. थोड़ी देर मे आँख लग जाने के बाद तो मै वापस अपने गॉव पहुँच जाता था मन एक बार फ़िर खुशी से दमकने लगता मुझे मेरा खोया हुअ सब कुछ मिल जात था, पर जब सुबह आँख खुलती तो खुद को गॉव कि खटीये के बजाय ट्रेन की बर्थ पर पाता. शाम तक गाड़ी रायपुर पहुँच जाती. ट्रेन से उतरने के बाद के मेरा मन जिसे इलाहाबाद मे कोस रहा था उसी ट्रेन को मै गेट से बाहर होने तक बार बार पलट कर देख रहा था. शायद मेरी ये आँखे उससे कह रही हो...................
ऐ दोस्त लौट के जब मेरे देश जाना
       कह देना मेरे उस सरजमीम को 
तेरी याद अब भी मेरे साथ है
        मै तेरी यादो को भुला नही हूँ



दोस्तो ये मेरी पहली रचना थी. इसमे जो गलती हुइ हो उसके लिये मुझे माफ़ करना. ये एक बचपन की सच्ची दास्ता थी

2 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक विवरण
    लेख कुछ और पैराग्राफ़्स में बंट जाए तो रूचि और बढ़े पाठक की

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  2. बहुत अच्छा लगा आप का यह संस्मरण पढकर.लिखते रहीये.शुभकामनाएँ.

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